बस्तर का अंचल अपनी समृद्ध संस्कृति, परंपराओं और त्यौहारों के लिए जाना जाता है। यहाँ के त्यौहार प्रकृति और कृषि से गहरे जुड़े हुए हैं, जो यहाँ के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं। हरियाली अमावस्या (श्रावण अमावस्या) के साथ ही बस्तर में कृषि-चक्र का आरंभ होता है और इसी के साथ शुरू होता है त्यौहारों का सिलसिला, जिन्हें यहाँ जगार उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
जगार: एक महायज्ञ
जगार का शाब्दिक अर्थ है “जग” यानी “यज्ञ”। यह एक ऐसा महायज्ञ है जिसके माध्यम से यहाँ के लोग अपने देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं। जगार एक अनुष्ठान है जो धान रूपी लक्ष्मी और नारायण के विवाह की कथाओं पर आधारित है। यह उत्सव कृषि संस्कृति में धान और अन्य अनाजों के बीच के संबंध और प्रतिस्पर्धा को दर्शाता है।
जगार अनुष्ठान में, गुरुमाएं देवी-देवताओं को जगाती हैं, उनकी पूजा-अर्चना करती हैं और उनके गुणों का बखान करती हुई गाथाएं गाती हैं। यही कारण है कि सभी जगारों के गायन की शुरुआत में ही गुरुमाएं विभिन्न देवी-देवताओं को जागने और इस यज्ञ में शामिल होने का निमंत्रण देती हैं।
जगार के प्रकार
बस्तर में जगार मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं:
- आठे जगार
- तीजा जगार
- लछमी जगार
- बाली जगार
आठे, तीजा और लछमी जगार का आयोजन व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों तरीकों से किया जा सकता है। हालाँकि, बाली जगार एक ऐसा जगार है जिसका आयोजन कभी भी व्यक्तिगत रूप से नहीं होता। यह हमेशा सामूहिक रूप से ही मनाया जाता है। जब कोई जगार सामूहिक रूप से आयोजित होता है, तो उसे “गाँव जगार” भी कहा जाता है। तीजा जगार को अक्सर “धनकुल” के नाम से भी जाना जाता है।
जगार का आयोजन स्थल
जगार का आयोजन स्थल उसके स्वरूप पर निर्भर करता है। यदि जगार सामूहिक है, तो इसका आयोजन गाँव की देवगुड़ी या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर किया जाता है। व्यक्तिगत जगार आयोजक के घर पर ही होता है। लेकिन बाली जगार की एक विशेष बात यह है कि इसका आयोजन हमेशा गाँव के पुजारी के घर पर ही होता आया है, जो इसकी सामुदायिक और पारंपरिक प्रकृति को दर्शाता है।
इस प्रकार, जगार केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि बस्तर की कृषि आधारित संस्कृति, परंपरा और गहरी आस्था का प्रतीक है। यह यहाँ के लोगों को प्रकृति और उनके आराध्यों से जोड़ता है और आने वाली पीढ़ियों को उनकी समृद्ध विरासत से परिचित कराता है।