बस्तर का दशहरा भारतीय त्योहारों में एक अनूठा और विशेष स्थान रखता है, जो न केवल अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहरों के कारण भी विशेष है। इस दशहरे की शुरुआत काछनगादी अनुष्ठान से होती है, जो बस्तर की पनका जाति द्वारा संपन्न किया जाता है। यह अनुष्ठान बस्तर दशहरे की सफलता के लिए आवश्यक होता है, जिसमें काछन देवी की अनुमति ली जाती है। काछनगादी रस्म के बिना दशहरे का उत्सव अधूरा माना जाता है, और यह रस्म बस्तर के राज परिवार और जनता के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध को दर्शाता है।
काछनगादी का महत्व और परंपरा
काछनगादी शब्द का शाब्दिक अर्थ है “काछन देवी को गद्दी प्रदान करना।” यह रस्म बस्तर की मिरगाना (हरिजन) जाति की इष्ट देवी काछन देवी की पूजा का प्रतीक है, जिसे रण देवी भी कहा जाता है। देवी को गद्दी के रूप में कांटेदार झूला प्रदान किया जाता है, जो जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने का प्रतीक होता है। इस रस्म में पनका जाति की एक कुंवारी कन्या, जिसे देवी का रूप माना जाता है, बेल के कांटों पर झूलती है। यह प्रतीकात्मक रूप से राजपरिवार को दशहरा मनाने की अनुमति प्रदान करती है और इस अनुष्ठान के साथ बस्तर दशहरा का विधिवत आरंभ होता है।
पुजारी गणेश के अनुसार, पितृपक्ष अमावस्या के दिन काछनगुड़ी में यह पूजा विधान संपन्न किया जाता है, और इस वर्ष यह रस्म नंदिनी नामक कन्या द्वारा पूरी की जाएगी। यह रस्म बस्तर के धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास का एक अभिन्न अंग है और इसे ढाई सौ वर्षों से निर्विघ्न रूप से संपन्न किया जा रहा है।
काछन देवी का इतिहास और उनकी मान्यता
काछन देवी की पूजा की परंपरा का संबंध बस्तर के माहरा कबीले से जुड़ा है। किंवदंती के अनुसार, जगदलपुर का नाम पहले जगतूगुड़ा था, जहां माहरा कबीले के मुखिया जगतू ने अपनी जान को खतरे में देखकर राजा दलपत देव से अभयदान की मांग की। राजा ने उन्हें आश्रय दिया और इसके बाद से माहरा कबीला राजभक्त बन गया। कबीले की इष्ट देवी काछन देवी की पूजा दशहरा के पहले आरंभ होती है, और बस्तर के पूर्व महाराजा ने इस प्रथा को विधिवत मान्यता दी।
काछन देवी को रण देवी के रूप में माना जाता है, जो संघर्ष और विजय का प्रतीक हैं। कांटेदार गद्दी पर बैठी हुई देवी बस्तर दशहरा को हर वर्ष आशीर्वाद प्रदान करती हैं, जिससे यह सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हो पाता है। कांटों की गद्दी पर बैठना इस बात का संकेत है कि जीवन की कठिनाइयों का सामना करना और उनसे पार पाना ही सच्ची विजय है।
रैला देवी की पूजा: एक अन्य महत्वपूर्ण अनुष्ठान
काछनगादी के बाद बस्तर दशहरे में रैला देवी की पूजा भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह पूजा गोल बाजार में संपन्न होती है, जहां रैलादेवी की कथा महिलाओं द्वारा उनकी बोली और भाषा में प्रस्तुत की जाती है। रैलादेवी की कहानी बस्तर के पहले चालुक्य नरेश अन्नाम देव की बहन से जुड़ी है। किंवदंती के अनुसार, राजकुमारी रैला का शत्रु सेना द्वारा अपहरण कर लिया गया था। यद्यपि उसे छोड़ दिया गया, लेकिन राजपरिवार ने उसे अपवित्र मानकर अस्वीकार कर दिया। राजपरिवार के इस व्यवहार से आहत रैला ने गोदावरी नदी में जल समाधि ले ली।
रैला देवी की इस करुण कथा का बस्तर के निर्धन परिवारों पर गहरा प्रभाव पड़ा, और वे हर वर्ष उनके श्राद्ध के रूप में रैला पूजा मनाने लगे। यह पूजा बस्तर दशहरे में रैला देवी की स्मृति को संजोने और सम्मानित करने का एक माध्यम है। रैला पूजा के माध्यम से बस्तर की महिलाएं अपनी संस्कृति और इतिहास को सजीव रखती हैं और इसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाती हैं।
सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
काछनगादी और रैला पूजा जैसी परंपराएं न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं, बल्कि बस्तर के सांस्कृतिक और सामाजिक सौहार्द्र का भी प्रतीक हैं। काछन देवी की पूजा में बस्तर का राजपरिवार और विभिन्न जातियां मिलकर शामिल होती हैं, जिससे यह सामाजिक एकता और समरसता का संदेश देती है। ढाई सौ वर्षों से चल रही यह परंपरा बस्तर की धरोहर है, जो यहां के लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।
काछनगादी अनुष्ठान हमें यह सिखाता है कि जीवन की कठिनाइयों का सामना करने और उनसे पार पाने का साहस ही सच्ची विजय है। यह बस्तर की रण देवी काछन के प्रति श्रद्धा और सम्मान का एक अद्वितीय उदाहरण है, जो हर वर्ष दशहरे के समय बस्तर के लोगों को जीवन की चुनौतियों से जूझने और विजय प्राप्त करने की प्रेरणा देती है।