छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले की पहचान यहां की विशिष्ट आदिवासी संस्कृति, प्राकृतिक पठारों और नदियों की सुंदरता तथा एतिहासिक रियासत से है। इसके साथ ही पिछले साढ़े तीन वर्षों से जशपुर की पहचान में एक नया नाम जुड़ गया है और ये पहचान अब देशव्यापी हो गयी है। अभी तक चाय की खेती के लिए लोग असम या दार्जिलिंग का ही नाम लेते रहे हैं लेकिन जशपुर में भी चाय की खेती होने लगी है। जो पर्यटकों को भी अपनी तरफ आकर्षित कर रही है। हम सभी यह जानते हैं कि पर्वतीय और ठंडे इलाकों में ही चाय की खेती हो पाती है और छत्तीसगढ़ का जशपुर जिला भी ऐसे ही भौगोलिक संरचना पर स्थित है।
जशपुर में चाय बागानों ने बढ़ाई सुंदरता
खूबसूरत वादियों से घिरा छत्तीसगढ़ का सरगुजा अपनी कुदरती सुंदरता के लिए पहले से ही मशहूर रहा है। यहां की खास आदिवासी संस्कृति, प्राकृतिक पठारों और नदियों की सुंदरता के साथ ऐतिहासिक रियासत सैलानियों को आकर्षित करती है, लेकिन बीते साढ़े तीन सालों से जशपुर की पहचान में एक नया अध्याय जुड़ गया है । जशपुर में हो रही चाय की खेती ने अपनी अलग पहचान कायम कर ली है,यहाँ की चाय की महक दार्जिलिंग या असम की तरह ही देश दुनिया में फैलने लगी है।
कुल 20 एकड़ में फैला है बागान
पर्वतीय प्रदेशों के शिमला, दार्जिलिंग, ऊंटी, असम, मेघालय, सहित अन्य राज्यों की चाय बागानों की तरह ही जाशपुर के सारूडीह चाय बागानों मे पर्वत और जंगलों से लगा हुआ है। यह 20 एकड़ में फैला हुआ है. यहां पर चाय प्रसंस्करण केंद्र के लगने से पहले यहां समूह की महिलाओं द्वारा गर्म भट्ठे के माध्यम से चाय को तार किया जाता था। यहां पर चाय प्रसंस्करण यूनिट में चाय का तेजी से उत्पादन शुरू हो रहा है हालांकि अभी एक मिलिट में चायपत्ती का उत्पादन हो रहा है पर आने वाले समय में उत्पादित चाय के पैकेट में भरने और उसके विपणन के लिए और लोगों को काम देना पड़ेगा।
अनुपयोगी जमीन पर उगाया गया चाय बागान
यह सारूडीह का चाय बागान पर्वत और जंगलों से लगा हुआ है। बता दें कि अनुपयोगी जमीन में बागान बन जाने से आसपास न सिर्फ हरियाली है, पर्यटन और पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से भी सारूडीह और जशपुर की पहचान भी काफी ज्यादा बढ़ रही है। चाय के बागान से पानी और मृदा का संरक्षण काफी तेजी से हुआ है।
लक्ष्मी स्वयं-सहायता समूह की सचिव पूर्णिमा बताती हैं, “करीब 20 एकड़ के बागान से हमने इस साल 10 क्विंटल चाय की पत्तियां तोड़ी हैं। पांच किलो हरी पत्ती सूखकर लगभग एक किलो चाय बनती है। इस हिसाब से हमने दो क्विंटल चाय तैयार किया।” पूर्णिमा के मुताबिक महिलाओं के समूह ने हाथ से ग्रीन टी के बैग और प्लांट में मशीनों की मदद से सीटीसी (क्रश, टियर, कलर) चायपत्ती तैयार किए।
पूर्णिमा ने बताया,”ग्रीन टी को दो हजार रुपए प्रति किलो और सीटीसी चाय को 400 रुपए प्रति किलो थोक भाव मिल रहा है। इसकी गुणवत्ता अच्छी है, जिसकी वजह से हमें इसे बेचने में आसानी होती है।”
राज्य का वन विभाग अब जिले के दूसरे हिस्सों में भी चाय बागान लगाने की तैयारी में जुटा है। जशपुर के बालाछापर में चाय की प्रोसेसिंग के लिए प्लांट भी लगाया गया है।
ग्रीन टी किया जा रहा है तैयार
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ सरकार ने जशपुर जिले के बालाछापर में 45 लाख रूपए की लागत से चाय प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किया है। यहां पर उत्पादन कार्य भी प्रारंभ कर दिया गया है और इस प्रसंस्करण केंद्र से सामान्य चाय और ग्रीन टी तैयार किया जा रहा है। बालाछापर में वन विभाग के पर्यावरण रोपणी परिसर में चाय प्रसंस्करण यूनिट की स्थापना की गई है। इस यूनिट में चाय के हरे पत्ते के प्रोसेसिंग की क्षमता 300 किलोग्राम प्रतिदिन की है।
पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है चाय बागान
जशपुर जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ी और जंगल के बीच स्थित सारूडीह चाय बागान एक पर्यटन स्थल के रूप में भी लोकप्रिय होता जा रहा है। यहां रोजाना बड़ी संख्या में लोग चाय बागान देखने पहुंचते है। 18 एकड़ का यह बागान वन विभाग के मार्गदर्शन में महिला समूह द्वारा संचालित किया जा रहा है। सारूडीह के सात ही सोगड़ा आश्रम में भी चाय की खेती के कारण जशपुर जिले को एक नई पहचान और पर्यटकों को छत्तीसगढ़ के चाय बागान घूमने का एक नया स्थान मिला है।